सोमवार, 8 अगस्त 2011

हाय रे गरिबी !


गरिबी ने क्या जुल्म ढाया है
आदमी को जानवर बनाया है
समय ने क्या क्या न कराया है
पेट के लिये बेशर्म बनाया है
भुख की अग्नि क्या होती है
गरिबों के घर ही जलती दिखती है
पेट के खातिर जो मजबुर हैं
नालियों में भी खाना खोजते जरुर हैं
क्या करेंगे वो जिनको किस्मत ने मारा हैं
जब इंसान ही नहीं इंसान का सहारा है
एक दिन संध्या की कहानी है
गिरी मैदान स्टेशन के बगल में एक नाली है
नाली से सटे स्टेशन की चहारदिवारी है
जो आम जनता के लघु शंका से भारी है
एक आदमी जो रंग रुप से साफ सुथरा
चला आ रहा था नम किये अपना मुखड़ा
अचानक उसने नाली के ऊपर देखा
बनी उसके चेहरे पर खुशी की एक रेखा
देखते ही नाली के इधर उधर
नज़र पड़ी पके बिखरे पड़े कुछ चावल पर
उसके खुशी का ठिकाना न रहा
उसपर मक्खियाँ भिनक रही थी
और कुत्ते बस पहुँचने ही वाले थे
कि उस व्यक्ति ने एक छलांग मारी
और अपने कटोरी में कुछ चावल भर डाली
उठाया और छुपाकर चलता बना
जैसे कोई देख रहा हो
और छिनने को खदेड़ रहा हो
छि: यहीं क्या जिन्दगी है
क्या गरिबी एक गन्दगी है
या खुदा तुने गरिब क्यों बनाया
गरिब यदि बनाया भी तो
गरिब रुपी दैत्य क्यों बनाया
यूं तो धरती जो अन्न पैदा करती है
सारे प्राणियों के खाने से दोगुनी होती है
पर पूरे धरती की सारी ऊपज
एक स्वार्थी के लिये भी कम पड़ती है ।

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