राजभाषा की स्थिति तभी सुधरेगी जब राजभाषा के प्रति लालबत्ती में घुमनेवालों की मानसिकता बदलेगी ।
सोमवार, 17 अक्तूबर 2011
मंगलवार, 13 सितंबर 2011
हिन्दी दिवस विशेषांक
14 सितम्बर - हिन्दी दिवस
हिन्दी दिवस विशेषांक
जिस तरह से कोई जरुरी नहीं कि फौज में रहकर ही देश की रक्षा की जा सकती है, समाज सेवी संगठन खोलकर ही समाज की सेवा की जा सकती है और राजनेता बनकर ही देश चलाया जा सकता है उसी तरह से कोई जरुरी नहीं कि राजभाषा विभाग की नौकरी करने वाले ही केवल हिन्दी का काम करते रहेंगे बाकी किसी और की यह जिम्मेदारी नहीं बनती है । कबतक दूसरे के मत्थे इस काम को टालते रहेंगे । इन सबके बगैर भी ये सारे कार्य किये जा सकते हैं । बस जरुरत है तो केवल इच्छाशक्ति की, जिसकी हमारे बन्धुओं में कमी है । किसी भी मुहिम को पूरा करने के लिये दो रास्ते होते हैं – प्रत्यक्ष और अप्रत्यक्ष । प्रत्यक्ष रुप से तो आजादी से लेकर आजतक राजभाषा का सम्पूर्ण कार्यान्वयन कार्य पूरा न हो सका । अतः अप्रत्यक्ष रुप ही एक प्रभावकारी माध्यम बचता है । लोगों में जागृती जगाकर ही हिन्दी को उसका स्थान दिलाया जा सकता है । मेरा यह व्यक्तिगत सोच है कि बहुत हो चुका, अब तो हिन्दुस्तान में हिन्दी दिवस मनाया बन्द करो । कितनी हास्यास्पद बात है कि अपने ही देश में जिसकी राष्ट्रभाषा हिन्दी है, उसे राजभाषा बनाने के लिये कई दशकों से हिन्दी दिवस मनाते आ रहे हैं फिर भी मुकाम हासिल नहीं हुआ । आखिर क्यों ? अपने देश में यदि हम अपने प्रांतीय भाषाओं जैसे बंगला, उड़िया, तेलगु, तमिल आदि के विकास के लिये उनका दिवस मनाते हैं तो यह बात तो समझ में आती है और तर्कसंगत भी है पर हिन्दी राष्ट्र में हिन्दी दिवस ! क्या बात है !!! सरकार की क्या विडम्बना है ? हमारा पूरा हिन्दुस्तान ही तो हिन्दी है । सबकुछ हिन्दीमय होना चाहिये । हमारी सरकार, राजनेता और नौकरशाहों की यह नकारात्मक सोच और प्रयासों का फल है कि आजतक हम हिन्दी दिवस मना रहें है और मनाते भी रहेंगे । हिन्दी दिवस मनाने का अर्थ है कि हम हिन्दी का कार्यान्वयन कर पाने में असमर्थ और लाचार हैं और इसीलिये लोगों को इसकी याद दिला रहे हैं और उनमें हिन्दी में काम करने की जागृती पैदा करने की कोशिश कर रहे हैं ।
दिल से आप चाहो अगर, भारत का उत्थान।
परभाषा को त्याग के, बाँटो हिन्दी ज्ञान।।
परभाषा को त्याग के, बाँटो हिन्दी ज्ञान।।
बुधवार, 10 अगस्त 2011
हिन्दुस्तान में हिन्दी के प्रचार प्रसार का प्रभावी एवं सशक्त माध्यम – बॉलीवुड एवं दूरदर्शन
आज के तारीख में हिन्दी फिल्म इतनी लोकप्रिय हो चुकी है कि चाहे जो भी भाषा-भाषी हो, हिन्दी फिल्म अवश्य देखते हैं । उनके हिट गानें अवश्य गुनगुनाते हैं, भले ही उसका अर्थ नहीं पता हो । क्योंकि आज लोगों को लगने लगा है कि यदि नाम कमाना है या फिर लोकप्रिय बनना है तो हिन्दी फिल्मों से जुड़ना आवश्यक है । यदि आप ऑकड़े देखें तो पायेंगे कि अहिन्दी भाषी व्यक्तियों को जितनी जनप्रियता हिन्दी फिल्मों से मिली है उतनी अपनी क्षेत्रीय भाषा से नहीं । ऐसे बहुत सारे उदाहरण हैं । जैसे – बप्पी लाहिड़ी, किशोर कुमार, अशोक कुमार व कुमार शानु इन सबकी मातृभाषा बंगला है पर ये चमके हैं तो बस हिन्दी से ही । आप अब तनिक सोचें तो पायेंगे कि आदमी भाषा के क्षेत्र में भी कितना स्वार्थी हो चुका है । यदि किसी भाषा से फायदा है तभी उसे बोलेंगे या पढ़ेंगे नहीं तो अपनी भाषा से ही लटके रहेंगे । बहुत ऐसे गैर हिन्दी भाषी हैं जो अपनी जरुरत के अनुसार हिन्दी का अनुसरण करते हैं पर जब राष्ट्रहित में हिन्दी को बढावा देने या समर्थन देने की बात आती है तो पीछे हट जाते हैं । कहते हैं कि यह मेरी भाषा नहीं है । हम क्यों करें ? हमारे साथ अन्याय हुआ है । हमारी भाषा को ही राष्ट्रभाषा होना चाहिये था । अभी जरुरत है तो बस मानसिकता बदलने की । वैसे हम अहिन्दी भाषी को ही दोष क्यों दें ? इसपर एक उदाहरण देखें ।
जिस कारखानें में मैं काम करता हूँ वहाँ मैंने यह अनुभव किया है कि बहुत सारे ऐसे हिन्दी भाषी भी रहते हैं जिनकी मातृभाषा हिन्दी होते हुए भी उन्हें हिन्दी में कार्यालयीन कार्य करने में शर्मींदगी महसुस होती है । उन्हें ऐसा लगता है कि यदि मैंने हिन्दी में कुछ लिखा-पढ़ा तो लोग हमें क्या कहेंगे ? शायद कहीं उन्हें ऐसा न लगने लगे कि मुझे अंग्रेजी नहीं आती है । यानी अंग्रेजी लिखना और बोलना कितने फक्र की बात है ! अंग्रेज चले गये पर अपनी छाप छोड़ गये । भले ही शुद्ध शुद्ध अंग्रेजी लिखनी न आती हो पर अंग्रेजी ही लिखेंगे और बोलने में भी अपनी शान समझेंगे पर अपनी राष्ट्रभाषा में कार्यालयीन कार्य करने का प्रयास करना भी ऐसे लोगों को पसन्द नहीं है । यानी कि बातें बड़ी बड़ी पर हिन्दी के विरोध में । कहने का मतलब कि अपने थोथे दिमाग में इतने भ्रम पाल रखें गये हैं कि अंग्रेजी के बगैर एक पग भी आगे बढ़ने की सोच नहीं सकते । मानते हैं कि अंग्रेजों ने अपने भाषा को जबरन थोपा पर यह तो उनकी सफलता है, आप ने स्वीकार कर लिया यहीं तो आपकी असफलता की शुरुआत हो गई । कहा भी गया है कि जुल्म करने वाले से ज्यादा गुनाहगार होता है जुल्म सहन या स्वीकार करने वाला । आज के दिन में अंग्रेजी अंतर्राष्ट्रीय भाषा बनकर सामने आयी है । यह भी सही है कि आज के तारीख में अंग्रेजी भाषा बहुत से लोगों के लिये जरुरत बन चुकी है पर मजबुरी नहीं । वो चाहे तो हिन्दी को भी अंग्रेजी की तरह प्रयोग में ला सकते हैं । अंग्रेजी एक सम्पर्क भाषा है जिससे हम अलग-अलग भाषा वाले चाहे वह किसी प्रदेश के हों या देश के, अपने विचारों को एक दूसरे से आदान-प्रदान कर पाते हैं । पर यह यहीं तक ठीक है । आप अपने ज्ञान को, अनुभव को यदि अपने भाषा में कलमबद्ध करेंगे तो इससे इस देश का भविष्य जो नन्हे पौधे के रुप में शहरों से अति दूर सम्पूर्ण सुविधारहित गावों में पनप रहे हैं, आपके द्वारा लिखे गये पुस्तकों को पढ़कर एक दिन हिन्दुस्तान को छाया प्रदान करने वाले वृक्ष का रुप ले पायेंगे ।
खैर हम बात कर रहे थे बॉलीवुड और दूरदर्शन की । आज के युग में मीडिया के माध्यम से हिन्दी का प्रचार-प्रसार काफ़ी हद तक बढ़ा है । चलचित्र और मीडिया ज्ञान का एक ऐसा श्रोत है जिसके माध्यम से जो बातें हम सुनते और देखतें हैं वह मन मस्तिष्क में इस तरह रिकार्ड हो जाता है जिसे मिटा पाना असम्भव है । यदि आप सरकारी और प्रशासनिक तौर पर हिन्दी के प्रचार-प्रसार की बातें करते हैं तो उसका विभिन्न तरिकों से विरोध प्रदर्शन सामने आता हैं क्योंकि हिन्दुस्तान में भिन्न भिन्न विचारधारा और भाषा वाले लोग रहते हैं और वे कुछ भी बोलने और करने के लिये पूरी आजादी पाये हुये हैं । पर इस आजादी को वे राष्ट्रहित में नहीं राष्ट्र के विरोध में इस्तेमाल करते हैं ।
पहले भी और आज भी बॉलीवुड फिल्म जगत ने अनेकोनेक हिन्दी फिल्में बनायी है । विभिन्न निर्देशकों ने अलग अलग क्षेत्र से आये हुए भिन्न भिन्न भाषाओं के कलाकारों के माध्यम से हिन्दी फिल्म की गुणवत्ता को और ज्यादा निखार प्रदान किया है ।
हिन्दी जगत में यदि मीडिया के योगदान को देखा जाये तो हमें पता चलता है कि मीडिया के विभिन्न अंगों ने मिलकर हिन्दी को जन जन तक पहुँचाने का महत्वपूर्ण कार्य किया है ।
समाचार पत्रों के हिन्दी संस्करणों ने भारत वर्ष में अपना स्थान बना लिया है । प्राय: हरेक अंग्रेजी समाचार पत्रों का हिन्दी संस्करण निकल चुका है । जैसे – टाईम्स ऑफ इन्डिया, हिन्दुस्तान टाईम्स, इकनॉमिक्स टाईम्स, बिजनेस स्टैंडर्ड आदि अनिकों अखबारों के हिन्दी संस्करण बाजार में उपलब्ध हो चुके हैं । ध्यान देने वाली बात यह है कि आखिर ऐसा क्यों हुआ ? देर से ही सही पर इन्हें एहसास तो हुआ कि इस देश की आधी से अधिक आबादी ऐसी है जो केवल हिन्दी समझती है और बची आधे की आधी आबादी ऐसी है जो इनकी कलिष्ट और लम्बी चौड़ी अंग्रेजी समझ नहीं पाती है । अतः यदि उन्हें अपने अखबार का व्यापार बढ़ाना है तो सरल एवं सहजता से समझी जाने वाली हिन्दी में अखबार छापना होगा जिसे आम गाँव तक का आदमी भी देश दुनिया के खबरों से अवगत हो जाये और उन्होंने ऐसा ही किया जिसका लाभ आज आम जनता उठा रही है ।
दूसरे तरफ हिन्दी मे समाचार पढ़ने वाले चैनलों की संख्या में भी काफी बढ़ोत्तरी हुई है तथा इनकी गुणवत्ता भी पहले से अधिक अच्छी हुई है । जैसे – एन डी टी वी इन्डिया, स्टार न्यूज़, तेज, आज तक, सहारा समय, ई टी वी न्यूज़, जी न्यूज़, डी डी न्यूज़ इत्यादि ।
अन्त में बात करते हैं टेलीविजन के हिन्दी धारावाहिकों की । अनेकोनेक टेलीविजन चैनलों के अनेकोनेक हिन्दी धारावाहिकों ने तो क्या हिन्दी भाषी बल्कि अहिन्दी भाषी परिवारों में भी एक भावुक जगह बनाने में एक हद तक कामयाबी हासिल कर ली है । अभी ऐसा हो गया है जैसे महिलाओं को भले ही खाना पकाने में देर हो जाये या सोने में देर हो जाये पर उन हिन्दी धारावाहिकों को तो देखना ही है । इसका बहुत कुछ श्रेय जाता है एकता कपूर को । इस तरह से जो महिलाएँ और पुरुष हिन्दी लिखना, पढ़ना या बोलना भले ही न जानते हों पर अच्छी तरह से हिन्दी समझ तो लेते ही हैं । इतना योगदान ही क्या कम है ?
भले व्यापार ही सही पर व्यापार के माध्यम से ही लोगों में हिन्दी जानने की इच्छा तो जागी है । जिन जिन धारावाहिकों ने समाज में हिन्दी प्रचार-प्रसार में अहम भूमिका निभायी है या अभी भी निभा रही है उनके नाम कुछ इस तरह हैं - STAR PLUS की “सास भी कभी बहु थी, कहानी घर घर की, कसौटी जिन्दगी की, प्रतिज्ञा, ये रिश्ता क्या कहलाता है, आप की कचहरी, हमारी देवरानी” । ZEE TV की “मेंहदी तेरे नाम की, सिंदुर, छोटी बहु, पवित्र रिश्ता, छोटी सी जिन्दगी, अगले जनम मोहे बिटिया ही कीजो, शोभा सोमनाथ की, खिचड़ी, बनुँ मैं तेरी दुल्हन” । COLORS की “लागी तुझसे लगन, बालिका बधु, ससुराल सिमर का, हमारी सास लिला, ना आना इस देश में लाडो, उत्तरन” । SONY की “अब होगा फुल ऑन, कॉमेडी सर्कस का नया दौर, X फेक्टर” । NDTV IMAGINE की “द्वारकाधीश, बींद बनुंगा घोड़ी चढ़ुँगा, बाबा ऐसो वर ढुंढो, चन्द्रगुप्त मौर्य, महिमा शनि देव की, अरमानों का बलिदान-आरक्षण” । SAB TV की “ऑफिस ऑफिस, तारक मेहता का उल्टा चश्मा, लापतागंज” । यह कार्य आज तक भारत सरकार अपने किसी भी नियमों और नीतियों के तहत सम्पूर्ण रुप से नहीं कर पायी है क्योंकि भारत सरकार ये सारे कार्य कागजों में ही करती आ रही है । व्यहारिक धरातल पर कुछ भी नहीं हुआ है और हो भी तो कैसे, इनके कार्यकारी अधिकारियों में इच्छाशक्ति ही नहीं है । केवल ऑकड़ो और प्रतिवर्ष हिन्दी प्रचार-प्रसार के लिये धनराशि मुहैया कराने का खेल ही चल रहा है और शायद चलता भी रहेगा ।
अन्त में मैं यह कहना चाहुँगा कि सबकुछ एकतरफ और इच्छाशक्ति एकतरफ । यदि कोई लाख कोशिश कर लें पर यदि हमारे दिल में हिन्दी के प्रति या राष्ट्रहित के प्रति जागरुकता नहीं है या कुछ सृजनात्मक चाहत नहीं है तो कोई भी हमें हिन्दी नहीं सीखा सकता है ।
अतः जरुरत है हिन्दी विकास के प्रति नेक भावना की जो एकमात्र नेक सोच और राष्ट्र प्रेम से ही पैदा की जा सकती है । जरुरत है अपनी घटिया सोच को बदलने की ।
तुलसीदास जी ने कहा भी है - जिसकी रही भावना जैसी...प्रभु मुरति तिन देखहुँ तैसी...
सोमवार, 8 अगस्त 2011
देख मोर मनवा रोई.............
दुराचारी और दुष्ट प्रवृति
जिस मनई की जाति
छोड़ न पयिहैं आदतें
कर लो कठिन उपाय
पापी और ये नीच आत्मा
सदा लात ही खात
कहत कबीर सुनो भाई साधो
याद रखो ये बात
पंडित नाम लिखाई के
पंडित भवा न जाय
कबीरा इस संसार में
पापी, नीच कछु लोग
मुँह में राम बगल में रानी
शर्म नहीं कछु थोड़
औरों की चिन्ता करे
पर अपनी चिन्ता छोड़
ज्ञान बाँटते रहते हरदम
अज्ञानी खुद होई
अपनी कोई सुध नहीं
पर औरों की सुध होई
ढोंगी ऐसे नरन को
देख मोर मनवा रोई
भगवन के संसार में
इनकी दुर्गती होई
एक दिन ऐसा आयेगा
जब होगा तेरा न्याय
धरती से जाने से पहले
होगा तेरा हिसाब ।
हाय रे गरिबी !
गरिबी ने क्या जुल्म ढाया है
आदमी को जानवर बनाया है
समय ने क्या क्या न कराया है
पेट के लिये बेशर्म बनाया है
भुख की अग्नि क्या होती है
गरिबों के घर ही जलती दिखती है
पेट के खातिर जो मजबुर हैं
नालियों में भी खाना खोजते जरुर हैं
क्या करेंगे वो जिनको किस्मत ने मारा हैं
जब इंसान ही नहीं इंसान का सहारा है
एक दिन संध्या की कहानी है
गिरी मैदान स्टेशन के बगल में एक नाली है
नाली से सटे स्टेशन की चहारदिवारी है
जो आम जनता के लघु शंका से भारी है
एक आदमी जो रंग रुप से साफ सुथरा
चला आ रहा था नम किये अपना मुखड़ा
अचानक उसने नाली के ऊपर देखा
बनी उसके चेहरे पर खुशी की एक रेखा
देखते ही नाली के इधर उधर
नज़र पड़ी पके बिखरे पड़े कुछ चावल पर
उसके खुशी का ठिकाना न रहा
उसपर मक्खियाँ भिनक रही थी
और कुत्ते बस पहुँचने ही वाले थे
कि उस व्यक्ति ने एक छलांग मारी
और अपने कटोरी में कुछ चावल भर डाली
उठाया और छुपाकर चलता बना
जैसे कोई देख रहा हो
और छिनने को खदेड़ रहा हो
छि: यहीं क्या जिन्दगी है
क्या गरिबी एक गन्दगी है
या खुदा तुने गरिब क्यों बनाया
गरिब यदि बनाया भी तो
गरिब रुपी दैत्य क्यों बनाया
यूं तो धरती जो अन्न पैदा करती है
सारे प्राणियों के खाने से दोगुनी होती है
पर पूरे धरती की सारी ऊपज
एक स्वार्थी के लिये भी कम पड़ती है ।
गुरुवार, 2 जून 2011
मेरे विचार से भारतीय रेल भी राजभाषा विकास का एक प्रभावी माध्यम बन सकता है ---
देश स्वाधीनता के बाद से ही राजभाषा के विकास में भारत सरकार के साथ साथ अनेकोनेक स्वायत्त संस्थाएँ भी जुटी हुई हैं । भारत सरकार के आदेश के अनुसार पूर्ण सरकारी, अर्ध सरकारी तथा केन्द्र सरकार के स्वामित्वाधीन सभी तरह के उपक्रमों ने भी राजभाषा के विकास में अभी भी काफी प्रयास जारी रखा है । पर यहाँ दो तरह की बातें आ जाती है – कुछ उपक्रम आम आदमी से प्रत्यक्ष रुप से जुड़े होते हैं और कुछ अप्रत्यक्ष रुप से । प्रत्यक्ष रुप से जुड़े प्रतिष्ठान राजभाषा प्रसार में अप्रत्यक्ष रुप से जुड़े प्रतिष्ठानों की अपेक्षा बेहतर भूमिका निभा सकते हैं । इसी क्रम में दोनों तरह के प्रतिष्ठानों पर प्रस्तुत है मेरा एक विचार :
उदाहरण के तौर पर भारतीय रिज़र्व बैंक को लेते हैं । जैसे बैंकिंग सेक्टर में भारतीय रिज़र्व बैंक की राजभषा की उत्कॄष्ट भूमिका की जितनी भी सराहना की जाये कम है । बैंकिंग सेक्टर में भारतीय रिज़र्व बैंक जो बैंकों का बैंक है, एक ऐसी स्वायत्त संस्था है जिसने अपने आन्तरिक कार्यों में राजभाषा का इतना व्यवहारिक प्रसार किया है जितना कि भारत सरकार के विभागों में नहीं हो पाया है । भारत सरकार में केवल कागजी आँकड़ो का खेल खेला जाता है, वास्तविक धरातल पर कार्यान्वयन की कोई मनोवृत्ति नहीं होती । जबकि भारतीय रिज़र्व बैंक के उत्तम और सकारात्मक विचारधारा वाले राजभाषा अधिकारी वास्तविक धरातल पर कार्य पहले और आँकड़े इकट्ठा करने की प्रक्रिया को बाद में पूरी करते है जिसमें पहला नाम सेवानिवृत्त उप महाप्रबन्धक डॉ. दलसिंगार यादव जी का आता है और वर्त्तमान में यह कार्यभार कोलकाता रिज़र्व बैंक के राजभाषा अधिकारी श्री काजी मो. ईसा साहब सम्भाले हुए हैं । डॉ. यादव ने भारतीय रिज़र्व बैंक में राजभाषा को एक ऐसे मुकाम पर पहुँचा दिया है जिसपर केवल मात्र अमल करने से ही राजभाषा का विकास होता रहेगा । एक तरह से यह भी कहा जा सकता है कि डॉ. साहब ने भारतीय रिज़र्व बैंक में अपने कार्य काल में “कम्प्यूटर पर राजभाषा प्रयोग” के क्रांति की लहर दौड़ा दी थी । इसके साथ भारतीय रिज़र्व बैंक ने सभी राष्ट्रीकृत बैंकों में राजभाषा का कार्यान्वयन युद्ध स्तर पर पूरा किया है और भारतीय रिज़र्व बैंक के राजभाषा अधिकारी राष्ट्रहित में राजभाषा के व्यवहारिक प्रसार हेतु अपने आप से प्रतिबद्ध हैं, उन्हें किसी के निदेश की जरुरत नहीं है । वे निश्चल भाव से सदैव राजभाषा हेतु समर्पित हैं । लेकिन जब बात आती है आम जनता से प्रत्यक्ष रुप से जुड़ने की तो मेरे समझ से केवल एक ही नाम सामने आता है और वो है भारतीय रेल । एक ऐसा तंत्र जिसकी छोटी से छोटी इकाई विभिन्न जाति, धर्म, भाषा और विचार वाले भारतीयों के दिलों को स्पर्श करते हुए प्रतिदिन गुजरती है । प्रत्येक भारतीय कभी न कभी किसी न किसी रुप में भारतीय रेल के सम्पर्क में जरुर आता है । अतः यह एक ऐसा माध्यम है जो प्रत्यक्ष रुप से आम भारतीय के दिलों से जुड़ा हुआ है और अपने विचारों को अंततः 90 % भारतीयों तक पहुँचा सकता है । मेरे कहने का तात्पर्य यह है कि केवल सरकारी कार्यालयों में हिन्दी का प्रयोग करवा देने से तो कागज़ी धरातल पर लक्ष्य प्राप्ति के आँकड़े दर्शाये जा सकते हैं पर वास्तव में क्या लोगों में हिन्दी के प्रति मनोवृत्ति बदल पायेंगे । जरुरत है भारत सरकार को एक ऐसी योजना बनाने कि जिससे प्रत्येक भारतीय आदरपूर्वक हिन्दी को अपनाए जिससे उसे अपने जीवन में हिन्दी की महत्ता की समझ आये और योजना यदि भारतीय रेल के माध्यम से चलायी जाये तो निश्चित रुप से सफलता हाथ लगेगी । जहाँ तक कार्यालयों में हिन्दी प्रयोग की बात है तो मैंने ऐसा देखा है कि बहुत सारे लोग पैसे के लालच में या मजबुरी में हिन्दी पढ़ते हैं और कुछ लोगों की मातृभाषा हिन्दी होते हुए भी अपने आप को औरों के समक्ष इस तरह से पेश करते हैं जैसे कि उनके पूर्वज ब्रिटेन से ताल्लुक रखते हैं और जो व्यक्ति हिन्दी में कार्यालयीन कार्य करता है उसके जैसा बेवकूफ कोई नहीं है । आखिर ऐसा क्यों ? जिस देश की आप खाते हो, और जिसके चलते अपकी पहचान बनती है , उसी की राष्ट्रभाषा में कार्य करने में इतनी तकलीफ । अतः पहले ऐसे लोगों की मनोवृत्ति बदलनी पड़ेगी । इन्हें एहसास दिलाना पड़ेगा कि हिन्दी आपकी बुनियादी जरुरत है और इसके बगैर आपका कोई भी सरकारी कार्य सम्भव नहीं है । आप जितनी चाहे उतनी भाषाएँ सीखो पर अपने राष्ट्रभाषा को सदा राजभाषा के रुप में प्रयोग में लाना पड़ेगा ।
मैं यह समझता हूँ कि भारतीय रेल के उच्चाधिकारी और राजभाषा अधिकारी यदि चाहे और भारत सरकार ऐसी कारगर योजना बनाकर सख़्त कदम उठाये तो हिन्दुस्तान के कोने-कोने में हिन्दी का प्रचार-प्रसार करना कोई बड़ी बात नहीं होगी । बस राष्ट्रहित में राजभाषा के प्रति सकारात्मक इच्छाशक्ति की जरुरत है । जब जन-जन में हिन्दी के प्रति राष्ट्रप्रेम की भावना जागृत हो जायेगी और लोग उसकी महत्ता से अवगत हो जायेंगे तो फिर कहने की जरुरत नहीं पड़ेगी । वे स्वयं ही हिन्दी सीखने लगेंगे और रुचि लेकर अपने बेटे-बेटियों को भी सीखायेंगे तथा खुद कार्यालयीन कार्य भी हिन्दी में करने लगेंगे । यह काम जोर जबरदस्ती से सम्भव नहीं है । इसके लिये सबके दिलों में राष्ट्रभाषा और राजभाषा के प्रति राष्ट्रप्रेम का संचार करना होगा और इसे कार्यान्वित करने का जिम्मा भी भारत सरकार का ही है । अतः आज के शिक्षित युवा वर्ग से अनुरोध है कि अपने दिलों में हिन्दी के प्रति सकारात्मक रुख पैदा करें और हिन्दी भाषा का सम्मान करें । अपने इस प्रस्तुतिकरण से मैं यह समझता हूँ कि यदि इसके पाठक प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष रुप से भारत सरकार के राजभाषा विभाग तक यह संदेश पहुँचा पाये तो हो सकता है कि राजभाषा विभाग कागज़ी आँकड़े इकट्ठा करना छोड़कर भारतीय रेल के माध्यम से हिन्दी को व्यवहारिक धरातल पर उसे सम्पूर्ण राजभाषा का सम्मान दिला पाने में सफल हो पाये ।
बुधवार, 23 मार्च 2011
जिन्दगी की कहानी
जिन्दगी के रंग में
जिन्दगी के संग में
नये नये ढंग में
नये नये रुप में
संगी मिलते रहे
मौसम खीलते रहे
मौसमों के खेल में
जिन्दगी गुज़र गई
संवर जाये जिन्दगी
इस होड़ में लगे रहे
जिन्दगी सम्भली नहीं
और जिन्दगी निकल गई ।
जिन्दगी की आस में
जिन्दगी भटक गई ।
++
जिन्दगी की आस में
जिन्दगी गुजर गई
आगे का सोचा नहीं
और जिन्दगी बदल गई
आस थी कुछ खास थी
कुछ करने की चाह थी
चाह पूरी न हुई
और जिन्दगी सहम गई
सच झूठ के द्वंद में
जिन्दगी मचल गई
हार जीत की सोच में
जिन्दगी बिगड़ गई
हिन्द में हो हिन्दी ही
अरमान धरी ही रह गई
++
क्या करें क्या न करें
यह सोचते ही रह गये
सोच ही कर क्या करें
जब जिन्दगी ठहर गई
पढ़ने की होड़ में
क्या क्या न जाने पढ़ गये
बिना किसी योजना के
पढ़ते ही रह गये
अपनी सभ्यता भूल
पाश्चात्य पर जा रम गये
सोचकर ही क्या करें जब
जिन्दगी बदल गई
जिन्दगी की आस में
जिन्दगी भटक गई ।
----
क्या करने आये थे
किस काम में हम लग गये
सत्कर्म छोड़कर
क्या क्या करते रह गये
परमार्थ का कार्य छोड़
निज स्वार्थ में ही रम गये
क्या करने आये थे
क्या क्या करते रह गये ।
धन के अति लोभ में
जिन्दगी बिगड़ गई
इधर गई उधर गई
जाने किधर किधर गई
हाथ मलते रह गये
और जिन्दगी निकल गई
जितने हम दूर गये
दूरियाँ बढ़ती गई
फ़ाँसलों की फ़ाँद में
फ़ँसते चले गये
जिन्दगी बेचैन थी
जिन्दगी बेजान थी
फ़ैसलों की आड़ में
बहुत परेशान थी
क्या करें क्या ना करें
यह सोचकर हैरान थी
जिन्दगी की आस में
जिन्दगी निकल गई
दिन गिनते रह गये
और उम्र सारी ढल गई
हम देखते रह गये
और जिन्दगी बदल गई
जिन्दगी की आस में
जिन्दगी भटक गई ।
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